Saturday, December 7
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किसानी: एक सिंहावलोकन- Kisan Diwas 2021

पिछले कुछ वर्षों में ऐसे बहुत से उदाहरण मिले हैं कि किसान खेती छोडछाड़ कर अन्य व्यवसाय अपना रहे हैं क्योंकि खेती अब लाभ का धंधा नहीं रह गया है। इसका एक कारण और भी है – जोत का काम होना।

किसी “अज्ञात शायर” ने सच ही लिखा है कि

कोई परेशान हैं सास-बहू के रिश्तो में!
किसान परेशान हैं कर्ज की किश्तों में!!

यदि भावनाओं को दरकिनार करते हुए एक पल के लिए सोचें तो पता चलता है कि एक किसान होना और किसानी से आजीविका चलाना कितना जोखिम भरा है। किसानी में यह जोखिम आज भी उतना ही है; जितना कि पहले था! यह जोखिम आर्थिक रूप में ही नहीं बल्कि बीज बोने से लेकर फसल काटने तक बराबर बना रहता है। इन जोखिमों की परवाह ना करते हुए किसान संघर्ष करता रहता है; इसलिए नहीं कि उसे दुनिया का पेट भरना है, इसलिए भी नहीं कि किसानी करके वह कोई महान काम कर रहा है; बल्कि किसानी का संघर्ष उसे इसलिए झेलना पड़ता है ताकि उसकी आजीविका चल सके। हमारे देश में अधिकांश किसान पुश्तैनी किसानी करते हैं! कहने का अभिप्राय यह है कि भारत में कृषि एक पीढ़ी से दूसरी में स्थानांतरित हो रही है।

हालांकि पिछले कुछ वर्षों में ऐसे बहुत से उदाहरण मिले हैं कि किसान खेती छोडछाड़ कर अन्य व्यवसाय अपना रहे हैं क्योंकि खेती अब लाभ का धंधा नहीं रह गया है। इसका एक कारण और भी है – जोत का काम होना। बढ़ती लागत और खेत के काम क्षेत्रफल के कारण मन मुताबिक उपज ना निकलने की भी एक वजह हो सकती है। इसके इतर ऐसे भी बहुत उदाहरण देखने को मिलते हैं कि फलां फलां व्यक्ति ने अच्छी खासी नौकरी छोड़कर खेती करना प्रारंभ किया है; जिससे उसे लाखों रुपए का लाभ हुआ है वह भी कम हेक्टेयर भूमि में, नगदी फ़सल बोकर। जिसका सारा श्रेय उसने वैज्ञानिक रूप से की गई कृषि को दिया है। 

यदि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो कृषक का निःसंदेह अंतहीन शोषण हुआ है; यह शोषण इतिहास के प्रत्येक कालखण्ड में और प्रत्येक शासक के शासन में हुआ। खेतिहर मजदूरों की दशा का तो वर्णन करना मुश्किल ही है। सोचने में कितना भयावह लगता है कि फसल का चौथाई हिस्सा कर के रूप में चुकाना, फिर शेष हिस्से से अपने परिवार का भरण पोषण करना। इस स्थिति में जीवन स्तर को उन्नत कैसे बनाया जा सकता है?? जबकि यदि अकाल पड़ने और लूटपाट होने पर शासक वर्ग द्वारा किसानों को किसी प्रकार की सहायता नहीं दी जाती थी। इतिहास में ऐसे कम ही उदाहरण मिलते हैं जब शासक वर्ग ने कृषकों की कोई मदद की हो।

अस्तु, कृषकों की बुरी दशा में अभी तक कोई विशेष उल्लेखनीय सुधार नहीं आया है। सुधार केवल यह है कि जहां पहले किसानी मानव और पशु शक्ति के बल पर की जाती थी, आज उसका स्थान मशीनों ने ले लिया है। जहां पहले दिनों दिन मेहनत करने के उपरान्त खेती संभव हो पाती थी, आज मशीनें उसे घंटों में संपन्न कर रही हैं। उन्नत बीज तकनीकि एवं वैज्ञानिक कृषि यथा कीटनाशकों और फसलों की नश्ल सुधार ने जरूर खेती को निर्णायक मोड़ दिया है। व्यवहार में देखा जाए तो किसानों की लागत में बेहिसाब खर्चों को बढ़ाया है। यह खर्च आज भी बिना हस्तक्षेप के लगातार बढ़ ही रहा है। आज यदि देखा जाए तो बगैर कोई मशीनी सहायता के खेती करना मुश्किल प्रतीत होता है। पारंपरिक खेती आज कोई भी किसान करना नहीं चाहता; इसमें शारीरिक श्रम की आवश्यता अधिक होती है।

यदि आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो आज़ादी के समय सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का सबसे ज्यादा योगदान था लेकिन आज सेवा क्षेत्र ने स्थान ले लिया है। अर्थात् आज एक औसत भारतीय खेती करने से बेहतर सफेदपोश नौकरी करना पसंद करता है क्योंकि इसमें जोखिम नहीं है; जबकि भारतीय कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है। यहीं एक बड़ा कारण है कि सेवा क्षेत्र, कृषि क्षेत्र से आगे निकल रहा है। हालांकि अभी भी कृषि में असीम संभावनाएं हैं, फिर भी खेती को हमारे समाज में आज दोयम दर्जे का काम समझा जाने लगा है। रही सही कसर शहर की चकाचौंध भरी जिंदगी ने निकाल दी।

यह कहना दिलचस्प होगा कि लगभग सभी सरकारों ने कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बहुत सी योजनाएं बनाई, 1960 की हरित क्रांति से आज तक कृषि उत्पादन बढ़ा ही है। 1991 के उदारीकरण ने भारतीय कृषि बाजार को अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ दिया है। कृषि यंत्र-मशीनें, खाद, बीज, तकनीकि ने कृषि को लाभान्वित ही किया है। लेकिन यह किसानों का दुर्भाग्य ही है कि आज भी किसान की किसानी लाभ का धंधा नहीं बन सकी। आज भी एक औसत किसान को खेती के सम्बन्ध में “आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया” वाली कहावत चरितार्थ करते हुए सुना जा सकता है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि किसान, किसानी का महत्व समझे! केवल पारंपरिक खेती करने से या केवल खेती के भरोसे रहने से कुछ नहीं होगा। खेती के साथ पशुपालन एवं नगदी फ़सल उगाकर भी जीवन स्तर उन्नत बनाया जा सकता है। पशुधन को कृषि का अनिवार्य अंग मानते हुए; महंगी मशीनों पर निर्भरता कम की जा सकती है। प्रायः यह देखा गया है कि अपने अनावश्यक खर्च की वजह से बहुत किसान कर्ज़ ले लेते हैं; जिसके कारण उनकी आर्थिक स्थिति डगमगा जाती है। किसानों को अनावश्यक कर्ज़ से बचना चाहिए। आलस्य त्यागकर खेती को लाभ का धंधा कैसे बनाया जा सकता है; खेती के साथ में आय के और स्रोत क्या हो सकते हैं; इस बात का चिन्तन आज किसान को करना चाहिए।

सरकार को चाहिए कि वोट बैंक के चक्कर में कर्ज़ माफी जैसी कुख्यात योजनाओं को तिलांजलि दे देनी चाहिए। इन योजनाओं के कारण ईमानदार किसान भी बैंकों का कर्ज़ वापिस नहीं करते। यह बैंकों पर अनावश्यक दबाव डालती हैं, इसके बजाय किसानों को सस्ती दरों पर या सब्सिडी के माध्यम से कृषि लागत उपलब्ध कराई जा सकती है। कृषकों के लिए कृषि बीमा के साथ अन्य रियायतें (आवास, शिक्षा, विद्युत, स्वास्थ्य, परिवहन) देकर भी किसानों की अतिरिक्त सहायता की जा सकती है। सरकार को चाहिए कि वह कृषि आधारित उद्यमों की स्थापना से किसानों की मदद करे। 

मुझे लगता है सरकार को नगद राशि भुगतान की जगह कृषि से सम्बंधित आवश्यक चीजें खरीदने पर छूट देनी चाहिए। नगद राशि प्राप्त होने पर अधिकांश किसान इसे कृषि कार्य में खर्च ना करके; अपने एशो-आराम में उड़ा देते हैं, इस प्रकार सरकारी सहायता देने का कोई मतलब नहीं रह जाता। छोटे किसान और पूंजीपति किसान में अंतर स्पष्ट करते हुए सरकार को आर्थिक सहायता (जो नगद ना हो) देने की योजना बनानी चाहिए। जिससे कि सरकार की योजना का लाभ उस किसान को पहले मिले जो पात्र है।

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