Friday, November 22
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सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के दुरूपयोग पर जताई चिंता, पूछा आज़ादी आंदोलन को कुचलने वाले औपनिवेशिक कानून की क्या अब भी है जरूरत?

Picture : Twitter

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा है कि महात्मा गांधी, तिलक को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले औपनिवेशिक कानून की आजादी के 75 साल बाद भी क्या प्रसांगिकता है. CJI एन.वी. रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को लेकर भी चिंता जाहिर की है. जिसका सरकार की तरफ से पक्ष रखते हुए एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर जोर दिया कि कानून के दुरूपयोग को रोकने के लिए कुछ पैरामीटर बनाए जा सकते हैं. वहीं केंद्र सरकार ने जुलाई 2019 में राज्यसभा में एक प्रश्न का जवाब देते हुए कहा था कि देशद्रोह के अपराध से निपटने वाले IPC के इस प्रावधान को खत्म करने का कोई प्रस्ताव नहीं है. जिस पर आगे दलील देते हुए सरकार ने कहा था कि राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों का सही तरीके से मुकाबला करने के लिए इस प्रावधान को बनाए रखने की आवश्यकता है.

क्या है यह राजद्रोह कानून ?

भारतीय दंड संहिता ( IPC) की धारा 124ए में राजद्रोह को परिभाषित किया गया है. जिसके अनुसार – बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा, जो कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा, असंतोष या अपमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा,उसके खिलाफ़ राजद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है. इसके अलावा देश विरोधी संगठनों का साथ देना या देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होना भी राजद्रोह माना जाता है.

यह कानून अंग्रेजों द्वारा 1870 में लाया गया था. उस समय सरकार विरोधी विचारों का दमन करने के लिए इसका उपयोग किया जाता था. राजद्रोह एक गैर जमानती अपराध है. जिसमें दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है.साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है.

IPC की धारा 124A के तहत राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों से निपटने में यह कानून सहायक है. साथ ही यह धारा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को हिंसा और अवैध गतिविधियों के खिलाफ शक्ति प्रदान करती है. इस कानून के विरोध में तर्क यह है कि यह कानून औपनिवेशिक मानसिकता का कानून है जो कि एक लोकतांत्रिक देश के लिए प्रासंगिक नहीं है. एक लोकतंत्र में असहमति और आलोचना आवश्यक है लेकिन यह कानून विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार के विरोध में है.

राजद्रोह कानून के तहत दर्ज मामले

सरकार इस कानून का उपयोग कानून व्यवस्था बनाए रखने और शांति क़ायम रखने के लिए करती है. हालांकि इस कानून को लेकर सरकारों पर असहमति के स्वर दबाए रखने के आरोप लगते हैं. समय समय पर इस कानून के दुरूपयोग को लेकर बहस होती रहती है. विनोद दुआ समेत तमाम पत्रकारों पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज किए जा चुके हैं. हाल – फिलहाल में क्लाइमेट एक्टिविस्ट दिशा रवि, डॉ. कफील खान, उमर ख़ालिद, शरजील इमाम शफूरा जरगर जैसे तमाम लोगों को राजद्रोह के मामले में गिरफ़्तार किया जा चुका है. एनसीआरबी द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक 2014 से 2019 में आईपीसी-124A के तहत 326 केस दर्ज किए गए, जिनमें 559 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें से सिर्फ 10 आरोपी ही दोषी साबित हुए.

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