Sunday, December 22
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गोरखालैंड आंदोलन के खुनी इतिहास दोहराने की साजिश? Gorkhaland Andolan kya hai

46 साल के अमीश पांडा दार्जिलिंग (Darjeeling) में फलों की दुकान चलाते हैं। उन्होंने अपनी जवानी राजनीतिक उथलपुथल और हिंसा के बीच बिताया है। अमीश कहते हैं कि जिस तरह का उत्पात हमने 80 और 90 के दशक में देखा था वो पिछले कई वर्षों से शांत था। लेकिन उन गड़े मुर्दों को फिर से उखाड़कर हम शायद एक और बार उसी दौर की ओर कदम रखने की तैयारी कर रहे हैं।

हम यहाँ जिस दौर का जिक्र कर रहे हैं वो गोरखालैंड आंदोलन (Gorkhaland Andolan) से जुड़ा हुआ है। इस आंदोलन की आग में अमीश के जैसे ही न जाने कितने नौजवानों की जिंदगी तबाह हो गई थी। अब आप सोच रहे होंगे कि वर्षों पहले मरा हुआ ये आंदोलन आज फिर से खबरों में क्यों है? क्योंकि पश्चिम बंगाल से भारतीय जनता पार्टी के दो सांसदों ने उत्तरी बंगाल (North Bengal) को अलग राज्य बनाने की मांग फिर से छेड़ दी है। माना जा रहा है कि ऐसे मांगों को हवा देने से बंगाल में अलगाववाद की बयार फिर से चल सकती है – जैसा की 80 और 90 के दशक में देखा गया था।

इतिहास में जाने से पहले हम वर्तमान के उस चिंगारी को दिया दिखा लेते हैं जिसके कारण बंगाल में अलगाववाद फिर से खबरों में हैं। आलिपुरद्वार से भाजपा सांसद जॉन बारला (BJP MP John Barla) ने बुधवार, 30 जून को एक बार फिर से उत्तर बंगाल के जिलों को मिलाकर एक अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने की विवादास्पद मांग उठाई। बिष्णुपुर से भाजपा सांसद सौमित्र खान (BJP MP Saumitra Khan) ने भी दक्षिण बंगाल के जंगलमहल और अन्य जिलों को अलग कर एक अलग राज्य बनाने की मांग करके एक नया विवाद खड़ा कर दिया। जबकि उनकी पार्टी के तरफ से उन्हें इस तरह के बयान ना देने की चेतावनी दी जा चुकी है।

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष (BJP State President Dilip Ghosh) ने पार्टी का रुख साफ़ करते हुए कहा कि हमारे कुछ नेताओं का बंगाल के विभाजन पर दिए गए बयान से हमारी पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है। भाजपा पश्चिम बंगाल के किसी भी रूप के विभाजन (West Bengal Partition) के खिलाफ है। हर किसी को पार्टी के विचारों पर चलना होगा। इसका उल्लंघन किसी भी प्रकार से बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।”

अब भाजपा अपने नेताओं के बड़बोलेपन से कितना भी किनारा कर ले, लेकिन लगातार दिए जा रहे बयानों पर काबू न पाने की वजह से केंद्र की मोदी सरकार की बंगाल पॉलिसी सवालों के घेरे में आ गई है। क्या पार्टी के अंदर अनुशासन रखने वाली भाजपा का अपने सांसदों और विधायकों पर इतना भी नियंत्रण नहीं है की वो पार्टी लाइन में रह कर बात करें? वैसे कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ये भाजपा की सोची समझी साजिश है जिसके तहत वो ममता बनर्जी को बंगाल (Mamata Banarjee in Bengal) में ही उलझाकर रखना चाहते हैं ताकि दीदी की दिल्ली दरबार के सपने को नाकाम किया जाए। भाजपा समझती है कि बंगाल चुनाव में जीत के बाद ममता का कद बढ़ा है और वो राष्ट्रीय स्तर पर एक चुनौती बन सकती है। इससे निपटने का सबसे सरल तरीका है उनको बंगाल के अंदर ही उलझकर रखना।

भाजपा के नेता चाहे जिस वजह से नॉर्थ बंगाल को अलग करना चाहते हों लेकिन बंगाल पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि ये राज्य में फिर से अलगाववाद को बढ़ावा देने का काम करेगा जिससे बड़े स्तर पर हिंसा के लौटने की पूरी संभावना है। इतिहास के पन्नों पर नज़र डालें तो वर्तमान पश्चिम बंगाल को विभाजित कर गोरखालैंड (Gorkhaland Andolan Kya Hai) को अलग राज्य बनाने कि मुहीम पहली दफ़ा 1909 में रखा गया था। दार्जिलिंग और सिलीगुड़ी क्षेत्र के नेपाली भाषा बोलने वाले लोगों का मानना है कि वो सांस्कृतिक और जातीय तौर पर बंगाली लोगों से अलग हैं इसलिए उनका एक अलग राज्य होना चाहिए।

80 के दशक में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (Gorkha National Liberation Front) की अगुआई में इस आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया। 1985 और 1987 के बीच करीब 1200 लोगों की मौत होती है जिसके बाद 1988 में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउन्सिल (DGHC) नामक एक स्वायत्तशासी संस्था का गठन किया जाता है। करीब दो दशक बाद 2007 में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा नामक पार्टी का उदय होता है जो एक बार फिर से अलग राज्य बनाने की मुहीम को आग देता है। 21 मई 2010 को दार्जिलिंग में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थकों द्वारा कथित तौर पर अखिल भारतीय गोरखा लीग के नेता मदन तमांग (All India Gorkha League leader Madan Tamang) की चाकू मारकर हत्या कर दी जाती है, जिसके कारण दार्जिलिंग, कलिम्पोंग और कुर्सेओंग में पूर्ण शटडाउन हो जाता है।

अगले साल 8 फ़रवरी को फिर से हिंसा ने जन्म लिया जब गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के तीन कार्यकर्ताओं को पुलिस के साथ झड़प में गोली लग जाती है, जिसमें से एक की तो ऑन द स्पॉट मौत हो जाती है। अप्रैल 2011 में हुए पश्चिम बंगाल चुनाव (2011 West Bengal Assembly Election) में दार्जिलिंग हिल्स की तीन विधानसभा सीटों पर जनमुक्ति मोर्चा के प्रत्याशी चुनाव जीत जाते हैं जिसने ये दिखाया की गोरखालैंड की मांग अभी भी जमीनी स्तर पर बाकी है।

2013 में जब कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने सर्वसम्मति से आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना राज्य (Telangana separation from Andhra) के गठन की सिफारिश करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया पुरे देश में कई जगहों से इसकी मांग उठने लगी जिसमें से गोरखालैंड की मांग प्रमुख थी। गोरखा पार्टियों ने कई दफ़ा बंद का ऐलान किया। 16 मई 2017 को ममता बनर्जीं की बंगाल सरकार ने ऐलान किया कि राज्य के हर स्कूल में बंगाली भाषा की पढाई अनिवार्य होगी तब एक बार फिर से आंदोलन की आग भड़क उठी। नरम रुख अख्तियार करते हुए सरकार ने 8 जून कहा कि दार्जिलिंग क्षेत्र में बंगाली भाषा कि पढ़ाई (Bengali language education) वैकल्पिक होगी। लेकिन जनमुक्ति मोर्चा ने सरकार पर अविश्वास का हवाला देते हुए हिंसात्मक रवैया अपना लिया। हिंसा नियंत्रण में करने के लिए अर्धसैनिक बलों को बुलाना पड़ा।

बाद में आंदोलनकारियों ने दिल्ली में भी प्रदर्शन किया और गृह मंत्री से मुलाकात की तब जाकर मुद्दा कही शांत हुआ। पिछले चार साल से गोरखालैंड की मांग (Demand for Gorkhaland) ने तूल नहीं पकड़ा है और स्थिति कमोबेश स्थिर है। आज फिर से उस आग को भड़काकर शायद किसी का भला नहीं होने वाला है। अब आप बोलेंगे कि अलग राज्य की मांग करना तो हमारा संवैधानिक अधिकार है और अगर किसी ने इसकी मांग की है तो केंद्र सरकार इतने वर्षों के हिंसा के बाद भी उनकी बात क्यों नहीं मान रही है? देखिये बात ये है कि नॉर्थ बंगाल या फिर गोरखालैंड एक बहुत ही संवेदनशील इलाके में आता है जिसे हम ‘चीक्केंस नेक’ (Chickens Neck) भी कहते हैं। इसके एक तरफ नेपाल, दूसरी तरफ बांग्लादेश, तीसरी तरफ चीन और भूटान है। राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से यहाँ पर एक अलग छोटा राज्य बनाना सही नहीं हो सकता है।

बाकी तो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पंख देने के लिए नेता लोग कुछ भी बोल देते हैं। वैसे भी भारत में हिंसा के सहारे ही नेताओं की राजनीतिक पारी उड़ान भरती है। बाकी तो सोचना समझना आपको है। आप हमें कमेंट सेक्शन में बता सकते हैं कि बंगाल के काटकर जो अलग राज्य बनाने की मांग हो रही है उसपर आपके क्या विचार हैं।

अगर आपके पास भी कोई कहानियां या ब्लॉग है तो हमें भेज सकते हैं। हम उसे ‘गंगा टाइम्स’ पर प्रकाशित करेंगे।

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