गांधी की हत्या के सम्बन्ध में नाथूराम गोडसे ने कोर्ट में कई तर्कों के साथ रखा था अपना पक्ष। उन सभी तर्कों का यथार्थ से कितना वास्ता है?
सच और झूठ में एक बुनियादी फर्क है। झूठ कल्पनाओं का परिणाम है, इसीलिए वह रोमांचित करता है। सच चूँकि तथ्य होता है इसलिए नीरसता और उब पैदा करता है। झूठ के आकर्षण को देखते हुए वॉट्सएप युग से भी बहुत पहले मार्क ट्वैन (Mark Twain) ने झूठ के तारीफ़ में कहा था, “जब तक सच अपना जूता पहनता है, झूठ पूरी दुनिया की परिक्रमा कर आता है।” झूठ के इस सच्चे तारीफ़ से आप झूठ की हैसियत का अंदाज़ा लगा सकते हैं। लेकिन, झूठ के इस हैसियत को नकारते हुए गांधी ने सत्य को चुना। गांधी का सत्य हमारा सत्य नहीं था। वो नीरस नहीं, सरस था। चलिए एक वाक्या से शुरू करते हैं।
उन दिनों गाँधी दूसरे गोलमेज सम्मेलन (2nd Round Table Conference) के लिए लंदन में थे। जब उन्हें किंग जॉर्ज पंचम के साथ बकिंघम पैलेस में चाय के लिए आमंत्रित किया गया तो वे अपनी आधी धोती में ही राजा से मिलने चले गए। रास्ते में एक पत्रकार ने उनसे पूछा – मिस्टर गाँधी, क्या आपको लगता है कि आप राजा से मिलने के लिए ठीक ढंग से तैयार हैं? (“Mr. Gandhi, do you think you are properly dressed to meet the king?”)
महात्मा गाँधी ने जबाव दिया, “मेरे कपड़ों की चिंता मत करो। सम्राट के पास हम दोनों के लिए पर्याप्त कपड़े हैं।” (Mahatma Gandhi replied: “Do not worry about my clothes. The king has enough for both of us.)
गाँधी का नाम पहली बार कब सुना कह नहीं सकता। दरसअल, कहा जा भी नहीं सकता। हाँ, गोडसे के बारे में पहली दफा कब सुना अच्छी तरह याद है और साथ में वो वाला “लेकिन” जो उनके अपराध को उनकी अधपकी विद्वता से ढकने का असफल प्रयास करती है। यकीन से नहीं कह सकता कि वो “लेकिन” वाले साजिश थे या खुद साजिश के शिकार। पर यह पक्के तौर पर कह सकता हूं कि उस “लेकिन” ने गांधी को उन गोलियों से अधिक लहूलुहान किया है।
आज का मेरा यह लेख नाथूराम (Nathuram Godse) के अदालत के सामने दिए गए बयान का मोटा माटी विश्लेषण है।
नाथूराम खुद को जन्म आधारित जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने वाले ब्राह्मण के रूप में अदालत के सामने पेश करते हैं। साथ में वह खुद को हिन्दू कहते हुए हिन्दुओं की सेवा को ही अपना परम धर्म बताते हैं। समझ नहीं आता की जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए कोई ब्राह्मण कैसे हो सकता है? क्या उन दिनों ब्राह्मण होने के लिए कोई विशेष विकल्प (जन्म के अलावा) मौजूद था? जो व्यक्ति जन्म आधारित जाति व्यवस्था को नकारता हो वो जन्म आधारित धर्म को क्यों मानेगा? इन सवालों के जवाब आप खुद ढूंढे तो बेहतर होगा।
वो आगे कहते हैं कि गाँधी सत्याग्रह और अहिंसा के पाठ से लोगों को कायर बना रहे थे, जबकि नाथूराम दुश्मन से बलपूर्वक लोहा लेने में कोई बुराई नहीं समझते थे। उन्होंने अपने तर्क को मजबूती प्रदान करने के लिए राम, रावण तथा महाभारत के प्रसंग को भी छेड़ दिया।
‘भारत की खोज’ (The Discovery of India) के दूसरे पृष्ठ में पंडित नेहरू लिखते हैं, “हालाँकि लोग पूरे दुनिया में मारे जा रहे थे पर उन मौतों के पीछे एक मकसद था। एक ऐसा मकसद जिसे हमारी पागल दुनिया अनिवार्य मानती है। लेकिन, भारत में हो रही मौतें बेवजह थी। इनका कोई मकसद नहीं था। यहां जिंदगी एक झटके में नहीं बल्कि धीरे धीरे बदन से रिस रहा था। शरुआत में अंग्रेजी हुकूमत ने इन लाशों को हमसे छिपाया पर लाशें ज्यादा देर तक नहीं छिपा करतीं। नियंत्रित अख़बार और जेल की दीवारें भी इन्हें हमसे ज्यादा देर तक नहीं छिपा सकीं”।
पंडित नेहरू दूसरे विश्व युद्ध और १९४३ के बंगाल सूखे के बारे में लिख रहे थे। लाखों भारतीय इस अकाल में मारे जा चुके थे और जिंदा बचने वालों के पास बस उनकी हड्डियां ही बाकी बची थीं। अब जिस मुल्क के पास खाने तक को अनाज ना हो वो अगर ब्रिटेन जैसे देश से बलपूर्वक आजादी लेने की बात करता हो तो यह निपट मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं। दूसरी बात, अगर गाँधी लोगों को कायर बना रहें थे तो फिर नाथूराम ने उन्हें साहसी बनाने के लिए क्या किया? इसपर नाथूराम ने कुछ नहीं बोला था। इसलिए हम भी चुप ही रहते हैं।
गोडसे आगे कहते हैं – गाँधी मुस्लिम हितैसी थे। वे मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए हिन्दी जैसी सुन्दर भाषा को नकारते हुए हिन्दुस्तानी भाषा की बात कर रहे थे, जबकि सभी जानते हैं कि हिन्दुस्तानी नाम की कोई भाषा नहीं हैं। गाँधी द्वारा मस्जिद खाली कराने के अनशन को लेकर मेरा दिमाग भयानक गुस्से से भर गया, और मुझे लगा की हिन्दुओं कि खैरियत के लिए गांधी को मारना अनिवार्य हो गया है।
शुरूआत में महात्मा गाँधी हिन्दी को लेके काफ़ी संजीदा थे। यहां तक कि उन्होंने ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ (Dakshina Bharat Hindi Prachar Sabha) का गठन भी किया था। 1918 और 1935 में वे इंदौर के हिंदी सम्मेलन में भाग तक ले चुके थे। लेकिन, 1942 के अंत तक वो हिन्दुस्तानी भाषा की वकालत कर रहे थे। वे इसे हिन्दू-मुस्लिम और उत्तर-दक्षिण के एकता सूत्र के रूप में देखते थे। वैसे बताता चलूँ की हिंदी के सबसे महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की भाषा भी हिन्दुस्तानी ही थी। भाषा को लेकर आपका अलग मत हो सकता है लेकिन इसे मजहब से जोड़ना ठीक नहीं होगा। भगत सिंह भी उर्दू के बहुत अच्छे जानकार थे। तो?
9 अगस्त 1942, को गाँधी गिरफ्तार होते हैं। उन्हें पूणा के आगा खान पैलेस (Aga Khan Palace) में रखा जाता है। सुनने में यह किलानुमा भले ही लग रहा हो मगर वास्तव में यह मलेरिया के लिए कुख्यात था। महात्मा यहीं अपनी धर्मपत्नी कस्तूरबा और सचिव महादेव देसाई को खो चुके थे। अंत तक खुद गाँधी भी बुरी तरह मलेरिया से पीड़ित हो जाते हैं। रिहा होने पर वे स्वास्थ लाभ के लिए पंचगनी जाते हैं जहाँ नाथूराम उनपर चाकू से असफल हमला करता है। तो अदालत के सामने यह कहना कि वह उन्हें अनशन के वजह से मारा, सरासर झूठ है।
मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा 16 अगस्त 1946, को “डायरेक्ट एक्शन डे” (Direct Action Day by Muhammad Ali Jinnah) घोषित करने के बाद हिंदुस्तान दंगों के आग में झुलस उठा। नोआखाली इन दंगों का केंद्र था। नोआखाली दंगे (Noakhali Riots) अर्ध-संगठित नरसंहार, बलात्कार, अपहरण, इस्लाम में हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण, नोआखाली में मुसलमानो द्वारा लूटपाट और हिंदू संपत्तियों की आगजनी की एक श्रृंखला थी। मुस्लिम लीग शासित बंगाल में, गाँधी को एक भयभीत हिंदू आबादी का सामना करना पड़ा। उन्हें वास्तव में लोगों के दिलों में साहस और गरिमा जगानी थी। महात्मा 6 नवंबर 1946 से नोआखाली और टिप्पर जिलों में थे और फरवरी 1947 के अंत तक वे वहीं रहे, प्रताड़ित लोगों के बीच। इतना ही नहीं, आजादी के बाद वो पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को लेकर वहाँ भी जाना चाहते थे। 8 फरवरी 1948 को वह जाने वाले भी थे। तो नाथूराम का उन्हें मुस्लिम हितैशी कहना एकदम गलत है।
नाथूराम कांग्रेस पार्टी और गाँधी को बंटवारे का जिम्मेदार बताते हुए यह पूछते हैं कि आख़िर हमें तय समय से 10 महीने पहले ही आजादी क्यों मिल गई? अंग्रेज़ी सरकार द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कमजोर पड़ रही थी। भारत गाँधी के नेतृत्व में आंदोलित था, ऐसे में अंग्रेज़ यहां से निकलना चाह रहे थे। कांग्रेस क्रिप्स मिशन (Cripps Mission) को नकार चुकी थी। वर्धा और मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में हुई बैठकों में भारत छोड़ो आन्दोलन (Quit India Movement) पर सहमति बन गई थी। 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू होता है और चंद घंटों बाद ही गाँधी समेत कांग्रेस के कई बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए जाते हैं।
जब अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस प्रतिबंधित कर दी गई थी तब हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के नेता बाहर थे। यहां तक कि दोनों बंगाल, सिंध और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में सरकार चला रहे थे। सिंध प्रांत, जिन्ना का जन्म स्थान होने के नाते, पाकिस्तान आंदोलन (Pakistan Movement) में उनके लिए विशेष था। मार्च 1943 में सिंध की मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की गठबंधन सरकार (Muslim League – Hindu Mahasabha Government in Sindh) ने पाकिस्तान निर्माण के पक्ष में एक आधिकारिक प्रस्ताव पारित करने वाली उप-महाद्वीप की पहली प्रांतीय विधानसभा बन गई थी। बेशक, हिंदू महासभा के सदस्य सदन से बाहर चले गए थे लेकिन 3 मार्च 1943 को पाकिस्तान के प्रस्ताव को पारित करने के बाद भी तीन हिंदू महासभा के मंत्रियों में से किसी ने भी इस्तीफा नहीं दिया था।
1946 में कांग्रेस द्वारा कैबिनेट मिशन प्लान पर सहमति न मिलने के बाद जिन्ना अगस्त 1946 में ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ (Direct Action Day) का ऐलान करते हैं जिसके बाद हिंदुस्तान दंगों के सागर में डूब जाता है। इन हालातों से निपटने में लिए कांग्रेस बुझे मन से विभाजन पर सहमत हो जाती है। 10 महीने पहले मिली आजादी पर तिलक देवसर, रॉ के स्पेसल डाइरेक्टर, अपने किताब ‘पाकिस्तान एट द हेल्म’ (Pakistan at the helm) में लिखते हैं – जिन्ना लंग कैंसर से पीड़ित थे, उनके पास 10 महीने नहीं बचे थे। यह बात माउंटबैटेन को पता थी, और अंग्रेज़ जल्द से जल्द भारत से निकलना चाह ही रहे थे। ऐसे में हमें आज़ादी तय वक्त से 10 महीने पहले ही मिल गई।
आप गाँधी पर अपनी असहमति दर्ज करा सकते हैं, लेकिन उसमें हत्या जैसे गंभीर अपराध को जायज़ मानना पड़े तो यकीनन आप गलत पक्ष में खड़े हैं और वहां सिर्फ सुधार की गुंजाइश ही बचती है।
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